उत्तराखंड में गुलदार का इंसान पर हमला करना कोई बड़ी खबर नहीं रह गई है। हर दूसरे दिन ऐसा एक न एक वाकिया सामने आ ही जाता है. गुलदार और इंसान के बीच यह संघर्ष अब इतना आम हो गया है कि इन खबरों को पढ़कर पर भी कोई आश्चर्य नहीं होता।
गुलदार और इंसानों के बीच इसी संघर्ष का नतीजा है कि आज लोग पलायन कर रहे हैं, तो उसकी एक वजह ये भी है। लोग अपने खेत-खलिहान छोड़कर शहरों की तरफ कूच कर रहे हैं।
एक बीमारी के चलते शुरू हुआ संघर्ष
क्या कभी आप ने सोचा है कि आखिर इंसान और गुलदार के बीच ये संघर्ष कैसे शुरू हुआ? कैसे गुलदार आदमखोर हो गए और इंसानों पर हमला करने लगे? जब आप इन सवालों का जवाब ढूंढते हैं, तो पता चलता है कि इसकी वजह एक बीमारी बनी. जिसके बाद से इस संघर्ष में लगातार तेजी आई है।
कैसे शुरू हुआ संघर्ष?
वैसे तो इस सवाल का सटीक जवाब किसी के पास नहीं है. लेकिन मशहूर लेखक और शिकारी जिम कार्बेट इसकी एक अहम वजह की जानकारी जरूर देते हैं. जिम कार्बेट ने अपनी किताब ‘द मैन ईटर ऑफ़ रुद्रप्रयाग’ में इसका जिक्र किया है। वह बताते हैं कि 20वीं सदी में उत्तर भारत में हैज़ा और वॉर फीवर नाम की बीमारी फैल गई. ये संक्रामक रोग थे.
लाशों को पहाड़ी से फेंक दिया जाता था
इसलिए इन बीमारी की वजह से मरने वालों की लाशों को जलाया नहीं जाता था. बल्कि इन लाशों के मुंह में जले कोयले का एक टुकड़ा डाल दिया जाता था. ऐसा शव को जलाने की प्रक्रिया के प्रतीक स्वरूप किया जाता था. इन लाशों को फिर पहाड़ी से नीचे फेंक दिया जाता था।
जब ये लाशें खाई या जंगल में गिरती थीं, तो तेंदुए यानी गुलदार इनका मांस खा लेते। इस प्रक्रिया से तेंदुओं को आसान शिकार मिलने लगा और उनके आदमखोर बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
बीमारी का असर कम हुआ, गुलदार के हमले बढ़े
कार्बेट अपनी किताब में लिखते हैं। परेशानी तब शुरू हुई, जब संक्रामक बीमारी का असर कम होने लगा। इससे जंगलों में पहुंचने वाले शवों की संख्या कम होने लगी। शव न पहुंचने की वजह से तेंदुओं ने पहाड़ी गांवों का रुख करना शुरू कर दिया.
कार्बेट के इस दावे पर एक जर्मन बायोलॉजिस्ट मेनफ्रेड वॉल्ट भी मुहर लगाते हैं. वह अपनी किताब ‘थ्रो वुंड्स एंड ओल्ड ऐज़’ में दूसरे विश्व युद्ध की एक घटना का ज़िक्र करते हैं.
बाढ़ तूफान से पैदा हुई मानव लाशें बनीं आहार
वो बताते हैं कि इन जीवों के आहार से जुड़ी आदतों पर नजर डाली जाए, तो वजह सामने आ जाएगी. वह कहते हैं कि ये जानवर बाढ़, तूफान और युद्ध के दौरान मिली मानव लाशों को खा लेते हैं। इसके बाद आदमखोर बने जानवर इंसानों पर हमला करना शुरू कर देते हैं.।
1942 की वो घटना
वह एक घटना के बारे में बताते हैं. 1942 में लगभग एक लाख भारतीयों को बर्मा से भारत लाया जा रहा था. इस दौरान तकरीबन 4 हजार लोग जंगल और दुर्गम सफर की वजह से तौंगुप दर्रे में मर गए. इस इलाके के बाघों ने इनकी लाशें खा लीं. वह आदमखोर बन चुके थे. इस बात का पता 1946 में चला। इस साल अमेरिकी सेना की 14 सैन्य टुकड़ियां तौंगुप पास से होकर ही बर्मा में आईं। इसी दौरान पास पर बाघों ने सैनिकों पर हमला बोल दिया.
ये घटनाएं कोई अपवाद नहीं हैं. दुनियाभर में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाते हैं. जिम कॉर्बेट और अन्य कई विशेषज्ञ मानते हैं कि इन जानवरों को आसानी से इंसानी लाश मिलना ही इनके आदमखोर होने की सबसे बड़ी वजह है.
खैर, राज्य सरकार को चाहिए कि वह इसका कोई न कोई पुख्ता समाधान निकाले ताकि इस संघर्ष पर अंकुश लगाया जा सके. वरना गांव खाली होते जाएंगे और एक दिन हमारे पुरखों के मकान और ज़मीन जंगली जानवरों का घर बन जाएगी.
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