बिछना के पति की दिल्ली से अंतरदेशी आई है। पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले भगतु को चिट्टी पढ़ने के लिए बुलाया गया है। और भगतु पढ़ने में पारंगत ना होने के बावजूद जैसे-तैसे चिट्टी पढ़ लेता है। इस तरह बिछना को और परिवार को परदेश गए अपने की खुशखबर मिल जाती है। ये था 90 के दशक का उत्तराखंड। जब हालचाल अंतरदेशी के सहारे मिला करता था और घरबार मनी ऑर्डर के सहारे चला करते थे। लेकिन 90 के दशक में पहाड़ सी मुसीबतों और अंतरदेशी की खुशियों के अलावा एक और चीज आई थी। और वो थी रामायण, श्री कृष्ण और महाभारत जैसे सीरियल।
पूरे भारत की तरह ही पहाड़ में भी इन सीरियल ने अपना जादू बिखेरा था। लेकिन संसाधनों की कमी के चलते इन सीरियलों को देखने के लिए यहां जो इंतजाम और जुगाड़ किए जाते थे, वो भगतु जैसे सैकड़ों उत्तराखंडियों के दिल में गहरे उतरे हैं। आज की पीढ़ी उस सुख को कभी महसूस नहीं कर पाएगी।
जब टीवी वाले से दोस्ती की बहुत कीमत थी
90 के दशक के उत्तराखंड के ज्यादातर गांवों में न सड़क पहुंची थी और ना ही बिजली। ऐसे वक्त में गांव के कुछ चुनिंदा परिवारों के पास ही टीवी होता था। वो भी ब्लैक एन व्हाइट। जिस पर सिर्फ दूरदर्शन चैनल आता था। कुछ गांवों में बिजली थी भी तो वो सिर्फ 2 से 3 घंटों के लिए रहती थी। ऐसे में बच्चों की कोशिश रहती थी कि जिसके घर में टीवी है, उससे दोस्ती की जाए। क्योंकि उससे दोस्ती होने का मतलब है कि रविवार को रामायण, महाभारत देखने उसके घर जा सकते थे।
बहुत कम ही सौभाग्यशाली बच्चे होते थे, जिन्हें टीवी वाले घर में बैठकर रामायण, श्रीकृष्ण या अन्य कोई सीरियल देखने का मौका मिलता था। कुछ बच्चे बाहर से सिर्फ टीवी की आवाज सुनकर और झांककर काम चला लेते थे। ऐसे में अक्सर टीवी के मालिक की नजर बाहर खड़े बच्चों पर पड़ती तो टीवी बंद कर देता। लेकिन बच्चे फिर भी नहीं जाते… क्योंकि उन्हें पता था कि टीवी अभी नहीं तो थोड़ी देर में फिर शुरू होगा।
जब खल्याण (आंगन) में टीवी पर दिखाया गया श्रीकृष्ण
कुछ वक्त बीता और धीरे-धीरे कुछ लोगों ने कलर टीवी और VCR ले लिया। एक नये तरह का बिजनेस शुरू हो गया था। हर गांव में एक तय दिन पर कलर टीवी, जनरेटर और श्रीकृष्ण या रामायण सीरियल का VCR कैसेट मंगाया जाता था। सीरियल देखने के इच्छुक लोग 25 पैसे, आठन्नी या फिर एक रुपये तक सीरियल को देखने के लिए किराया देते थे। फिर तय दिन को सब लोग दिन में अपना कामकाज निपटाते और रात में पंचायत वाले मैदान में कलर टीवी लगाया जाता और उस पर चलता सीरियल।
पूरी रातभर सीरियल चलता और हर आदमी मैदान में बैठकर एकटक देखता। गांव वालों के लिए और खासकर बच्चों के लिए सीरियल में दिखने वाले ये कलाकार ही भगवान बन चुके थे।
श्रीकृष्ण, राम के पोस्टर से भर दी दीवारें
श्रीकृष्ण, रामायण जैसे सीरियलों का ऐसा जादु हुआ था कि हम इन कलाकारों को ही भगवान समझते थे। गांव के बच्चे जंगलों से बीज जमा किया करते थे और बीज के बदले उन्हें पैसे मिला करते थे। इन पैसों से दो ही चीजें आती थीं… कंचे या तो भगवान के पोस्टर। टीवी पर दिखने वाले इन भगवानों के पोस्टर कमरे में हर तरफ चस्पा कर दिए जाते थे। और फिर होती थी इनकी पूजा।
पहाड़ में जीवन ना सिर्फ पहले कठिन था बल्कि अब भी काफी हद तक है। लेकिन पहाड़ सी कठिनाइयों के बीच हम मनोरंजन का साधन खोज ही लेते थे। आज भले ही मोबाइल और इंटरनेट से हम काफी नजदीक हैं, लेकिन जो नजदीकी इनके बिना थी वो शायद अब कभी नहीं होगी।
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