गढ़वाली कविता: तीन मई….

तीन मई …  थे रे  बई
घर मा रई ,कखी न जई,
खई पैई  अर  सैंयू   रई
पर  तू  भैर कतै न जई 

किताब पढ़ी, गीत सुणी
या त ऊन की स्वेटर बुणी
चौकू चूल्हू तू करदू रई
झाडू पोछा म वक्त बितई !!
पर  तू  भैर कतै न जई l

रिश्तेदारों तैं फोन मिलई 
दोस्त-यारों तैं याद दिलई
सेवा सौंली सबू तै भेजदू रै
राजी खुशी त्यूं की पुछणू रई
पर तू भैर कतै न जई

गरीब छैं त गरीब ही रई
झोली झंगौरू छंछैणू खई
लोग त्वै मा दैण क आला
तू  कैम मागण न जई
पर तू भैर कतै न जई 

अंधियारा का बाद उजालू आळू
नयू सुरज  तब  जगमगाळू
बंच्या रौला त मेहनत करला
ई बात अपणा बच्चों बिंगई
पर तू भैर कतै न जई !!

(सोशल मीडिया से साभार)

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